रामकथा अनंत है, और श्रीराम के जीवन की प्रत्येक घटना में गहरे अर्थ और आदर्श छुपे हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी काव्य-रचना श्रीरामचरितमानस में राम के जीवन के हर पहलू को इतने मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया है कि उसके हर शब्द में गहरे रहस्य समाहित हैं। तुलसीदासजी स्वयं इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं:
“राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए।।
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना।।
“वेदों ने राम के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान राम अनंत हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं।”
~ श्रीरामचरितमानस (1/114/3-4) ~
तुलसीदासजी के अनुसार, भगवान राम के गुण, उनकी कथा और कीर्ति अनंत हैं। यही कारण है कि हम जब-जब रामकथा का अध्ययन करते हैं, हर बार कुछ नए रहस्य सामने आते हैं। आज हम रामचरितमानस के एक ऐसे प्रसंग का गहन विश्लेषण करेंगे, जिसमें सीता और राम का प्रथम मिलन होता है। इस प्रसंग में गोस्वामीजी ने अनेक गूढ़ अर्थों को समेटा है, जो पहली नज़र में पढ़ने पर दिखाई नहीं देते।
प्रसंग का परिचय: राम और सीता का प्रथम मिलन
यह घटना तब घटित होती है जब श्रीराम और लक्ष्मण, ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुर आते हैं। दोनों भाई सुबह के समय गुरु विश्वामित्र की पूजा के लिए फूल लेने के उद्देश्य से पुष्पवाटिका में जाते हैं। तुलसीदासजी इस घटना का वर्णन इन पंक्तियों में करते हैं:
“समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥”
“(पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले।”
~ श्रीरामचरितमानस (1/227/2) ~
यहाँ राम और लक्ष्मण गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पवाटिका जाते हैं, जहाँ सीता जी भी उसी समय पार्वती जी की पूजा के लिए अपनी माँ की आज्ञा से आती हैं:
“तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥”
“उसी समय सीता जी वहाँ आईं। माता ने उन्हें गिरिजा (पार्वती) जी की पूजा करने के लिए भेजा था॥”
~ श्रीरामचरितमानस (1/228/2) ~
इस प्रसंग में तुलसीदासजी ने ‘सीता’ शब्द का उपयोग किया है, जो केवल एक नाम नहीं है, बल्कि एक विशेष अर्थ और संकेत को प्रकट करता है।
“सीता” शब्द का गूढ़ अर्थ
गोस्वामी तुलसीदासजी ने यहाँ “सीता” शब्द का प्रयोग क्यों किया? तुलसीदासजी, सीता के स्थान पर “जनकसुता” या “जानकी” जैसे शब्दों का भी उपयोग कर सकते थे, परंतु उन्होंने सीता शब्द का चयन किया, जो कि अत्यंत विचारणीय है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अन्य नामों का उपयोग करने पर जनक की अन्य पुत्रियाँ उर्मिला, मांडवी आदि का भी संकेत हो सकता था। इसीलिए तुलसीदासजी ने विशिष्ट रूप से “सीता” शब्द का उपयोग किया, जो शीतलता का प्रतीक है।
सीता का यह शीतल स्वरूप हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में मंदोदरी के संवाद में भी दिखाई देता है, जहाँ वह रावण को समझाते हुए कहती हैं:
“तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥”
“सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली शीतल रात्रि के समान आई हैं।”
~ श्रीरामचरितमानस (5/36/10) ~
मंदोदरी के इस कथन में “सीता” का शीतलता के प्रतीक के रूप में वर्णन किया गया है। जबसे राम ने अवतार लिया है, तबसे सीता जी से उनकी पहली मुलाकात नहीं हुई थी। राम के हृदय में सीता के वियोग की अग्नि दहक रही थी, और सीता का आगमन उस अग्नि का शमन करने वाला था। इस प्रकार “सीता” शब्द का यहाँ गूढ़ और प्रतीकात्मक अर्थ निहित है।
गुरु और माता की आज्ञा का महत्व
यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यहाँ राम अपने गुरु की आज्ञा लेकर पुष्पवाटिका में आते हैं, जबकि सीता को उनकी माता की आज्ञा से भेजा जाता है। यह विरोधाभास हमें एक गहरी समझ की ओर इंगित करता है। यदि हम सामान्य दृष्टि से देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि राम, जो गुरु की आज्ञा से आए हैं, श्रेष्ठ हैं, जबकि सीता माता की आज्ञा से आई हैं। परंतु वास्तव में, यहाँ तुलसीदासजी एक महत्वपूर्ण मर्यादा का वर्णन कर रहे हैं।
श्रीराम का अपने गुरु की पूजा के लिए स्वयं आना उचित है, क्योंकि वह एक विद्यार्थी हैं और उनका कर्तव्य गुरु की सेवा करना है। दूसरी ओर, सीता का गिरिजा पूजन के लिए माता की आज्ञा पर आना भी अपने स्थान पर उचित है, क्योंकि कुंवारी कन्याएँ अपनी माता से आज्ञा लेकर ही पति प्राप्ति के लिए गिरिजा का पूजन करती हैं। इसका प्रमाण हमें भागवत महापुराण में रुक्मिणी के प्रसंग से भी मिलता है, जहाँ वह गिरिजा पूजन के लिए अपनी माता की अनुमति से जाती हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि राम का गुरु की आज्ञा लेकर आना और सीता का माता की आज्ञा से आना, दोनों ही अपने-अपने स्थान पर उचित हैं और इनमें से कोई भी श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं है। दोनों ने अपनी मर्यादा का पालन किया है, जो तुलसीदासजी के रामचरितमानस में मर्यादा का एक और उदाहरण प्रस्तुत करता है।
मर्यादा का गूढ़ संदर्भ
श्रीरामचरितमानस में मर्यादा का अत्यंत सुंदर और गहन विवरण मिलता है। तुलसीदासजी के हर प्रसंग में चरित्रों की मर्यादा को सर्वोपरि रखा गया है। इस प्रसंग में राम का गुरु आज्ञा लेकर आना और सीता का माता के आदेश से गिरिजा पूजन के लिए आना, इस मर्यादा का एक सुंदर उदाहरण है।
सीता का गिरिजा पूजन के लिए जाना यह संकेत देता है कि वह अपने मन में राम के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव रखती हैं, किंतु वह अपने इस भाव को विनम्रता और मर्यादा में सीमित रखती हैं। यह उनका आत्मसंयम और धैर्य दर्शाता है, जो कि स्त्री का सबसे बड़ा आभूषण माना गया है।
अब एक और तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहूँगा | राम स्वयं गुरु से आज्ञा लेकर आए हैं जबकि सीताजी को माँ ने भेजा है | यह तो ऊपर से ग़लत प्रतीत होता है क्योंकि राम स्वयं आज्ञा लेकर आ गये | आप स्वयं बतायें – कोई विद्यार्थी स्वयं कोई काम कर ले proactively और दूसरा विद्यार्थी बोलने पर काम करे passively तो आप किसे बेहतर विद्यार्थी कहेंगे ? स्वाभाविक है की जो स्वयं बिना पूछे काम कर ले वह विशिष्ट विद्यार्थी कहा जाएगा | तो इस दृष्टि से राम बेहतर जान पड़ते हैं और सीताजी निम्न कोटि की | पर ऐसा है नहीं | प्रसंग पर थोड़ी गंभीरता से विचार करें | रामजी क्यों आए हैं? गुरु की पूजा हेतु फूल लेने | और सीता जी क्यों आई हैं गिरिजा पूजन करने के वास्ते | कुंवारी कन्या गिरिजा पूजन पति के हेतु करती हैं | यह बात भागवत से भी प्रमाणित होती है | भागवत महापुराण में कृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण का प्रकरण है | उसमें रुक्मिणी एक पत्र केशव को भेजती हैं जिसमें लिखती हैं:
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात्।।
“हमारे कुल में यह प्रथा है कि विवाह के एक दिन पहले कुलदेवी की पूजा की बड़ी यात्रा होती है | उस अवसर पर नववधू गिरिजा की पूजा करने के लिए नगर के बाहर जाती है |”
~ भागवत (10/52/42) ~
यहाँ भी अगले दिन धनुष यज्ञ है – जिसके बाद सीता का ब्याह हो जाएगा | इसलिए माता सुनयना ने सीता को गिरिजा पूजन के लिए भेजा | अब आप स्वयं बताइए – सीताजी स्वयं माता से बोलती की मैं पति के लिए इतनी आतुर हूँ की मुझे गिरिजा पूजन करना है और आज्ञा मांगती तो कैसा लगता ? लगता कि वो विवाह के लिए बहुत आतुर हैं ! इसलिए राम का स्वयं आज्ञा माँगना अपने स्थान पर उचित है और सीताजी की माता के आज्ञा पर आना भी अपने स्थान पर उचित है | अतएव कोई श्रेष्ठ और कोई निकृष्ट नहीं हैं |
निष्कर्ष
श्रीरामचरितमानस का यह प्रसंग राम और सीता के चरित्र का परिचय कराता है, जहाँ एक ओर राम का गुरु आज्ञा से पुष्पवाटिका जाना उनके कर्तव्य और सेवा भावना को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर सीता का माता की आज्ञा से गिरिजा पूजन के लिए जाना उनके शील, मर्यादा और धर्मपालन का प्रतीक है। तुलसीदासजी ने अपने शब्दों में इन मर्यादाओं को इतनी सुंदरता से प्रस्तुत किया है कि हर बार पढ़ने पर भी नए अर्थ और गूढ़ भाव हमारे सामने प्रकट होते हैं।
यह प्रसंग हमें यह भी सिखाता है कि मर्यादा का पालन, चाहे वह गुरु की आज्ञा हो या माता की, जीवन में अनुशासन और सम्मान का मार्ग है। श्रीरामचरितमानस के ऐसे गूढ़ प्रसंग हमें भारतीय संस्कृति और उसके आदर्शों की उच्चता का अनुभव कराते हैं।
तुलसीदासजी का यह वर्णन केवल रामकथा का एक भाग नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, मर्यादा, और आदर्शों का जीवंत प्रतीक है। इस प्रसंग को समझने से हमें न केवल श्रीराम और सीता के दिव्य चरित्र का बोध होता है, बल्कि हमें अपने जीवन में भी मर्यादा, अनुशासन और आदर्शों का पालन करने की प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार, रामकथा का हर प्रसंग हमें अपने जीवन को श्रेष्ठ और आदर्श बनाने की राह दिखाता है।
राम और सीता के इस प्रथम मिलन का यह गूढ़ अर्थ हमें बताता है कि प्रेम, समर्पण और मर्यादा के आदर्श भारतीय संस्कृति में सदैव से पूजनीय रहे हैं, और इनका पालन करना ही सच्चा धर्म है।
श्रीरामचरितमानस में छोटी – छोटी बातों में मर्यादा का इतना सुंदर निर्वाह हुआ कि गंभीरता से इनका अध्ययन करने वाला चकित हुए बिना नहीं रह सकता !