परिचय:
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस को हिंदी साहित्य का महाकाव्य कहा जाता है। इसमें भगवान श्रीराम के जीवनचरित को इतने सरल और भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि यह सभी वर्गों के हृदय में विशेष स्थान रखता है। इसके सात कांडों में सुंदरकांड का विशेष महत्व है। यहीं से हनुमान जी का अतुलनीय पराक्रम और श्रीराम के प्रति उनकी भक्ति का पूर्ण चरम दिखाई देता है।
लेकिन एक गहरी समस्या भी है, जो इस महाकाव्य की प्रामाणिकता को लेकर आज तक बनी हुई है। रामचरितमानस के मूल हस्तलिखित पांडुलिपि के लुप्त हो जाने के कारण, विभिन्न प्रतियों में मानवीय त्रुटियाँ शामिल हो गईं। प्राचीन काल में डिजिटल छपाई की अनुपस्थिति में हस्तलिखित प्रतियों को बार-बार लिखते समय कई पाठभेद उत्पन्न हो गए।
इस लेख में हम आपको कुछ ऐसे प्रमाणित छंद और चौपाई दिखाएंगे जो आधुनिक लोकप्रिय प्रतियों से गायब हो गए हैं। इसके साथ ही, कुछ चौपाइयों में पाठभेद का उदाहरण भी देंगे, जहाँ विद्वानों के बीच मतभेद है कि कौन सा पाठ असली और प्रामाणिक है।
इस विषय में हमारा यह वीडियो द्रष्टव्य है –
गुमशुदा छंद: सुन्दर काण्ड का खोया हुआ हिस्सा
जब हनुमानजी लंका से सीताजी का समाचार लेकर आते हैं तो वहाँ आया है–

यहाँ विचारणीय है कि अन्यत्र प्रायः वर मांगने के लिए बोला जाता है तभी वर मांगे गए हैं –
मागु मागु बरु भै नभ बानी ।
परम गभीर कृपामृत सानी ॥
बालकाण्ड 145/6
इसी तरह कागभुशुण्डि जी के प्रकरण में उत्तर काण्ड में रामजी ने वर मांगने को कहा है –
काकभसुंडि मागु बर
अति प्रसन्न मोहि जानि |
अनिमादिक सिधि अपर रिधि
मोच्छ सकल सुख खानि ||
उत्तरकाण्ड # 83
अतएव कुछ प्राचीन पोथियों में यहाँ दो अतिरिक्त चौपाइयाँ प्राप्त होती है जहाँ रामजी हनुमानजी को वर माँगने को कहते हैं | उदाहरणार्थ यह रामकर्ण शर्मा जी की टीका देखिये –

रामकर्ण शर्मा जी की टीका यहाँ से डाऊनलोड कीजिये –

रामजसन जी की भी एक पुरानी संशोधित प्रति मिलती है | वहाँ भी इन चौपाइयों को संगृहीत किया गया है –

रामजसन जी की पोथी यहां से डाऊनलोड करें –

यहाँ यह भी विचारणीय है कि जब वर शब्द का प्रयोग है ही फिर बचन शब्द पुनरुक्ति लगती है | इसलिए कुछ पोथियों में पाठभेद मिलता है | उदाहरणार्थ रामभद्राचार्य जी की भावार्थ बोधिनी देखिये-

रामभद्राचार्य जी की भावार्थ बोधिनी यहाँ से डाऊनलोड करें –

एक बात और | इस चौपाई ‘नाथ भगति अति सुखदायनी’ का एक पाठभेद मिलता है | वह भी गीताप्रेस और रामकर्ण शर्मा जी की पोथी में देखिये-


इन छंदों के लोप का मुख्य कारण बार-बार की नकल और कुछ समय बाद मुख्य पांडुलिपि का विलुप्त हो जाना है।
पाठभेद के उदाहरण: कौन सा पाठ सही है?
रामचरितमानस की लोकप्रिय प्रतियों में कई जगह पाठभेद पाए जाते हैं। पाठभेद का अर्थ है एक ही छंद या चौपाई के अलग-अलग पाठ। कुछ पाठ अंतर मामूली हैं, जबकि कुछ के अर्थ में बड़ा फर्क पड़ता है। विद्वानों के बीच इन पाठों पर मतभेद होते रहे हैं।
पाठभेद का उदाहरण 1:
चौपाई का पहला पाठ:

सुन्दर काण्ड 21/5
यहाँ विचारणीय है कि पहले सृष्टि होती है, फिर पालन होता है और फिर संहार होता है | अन्यत्र भी कहा है –
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी |
बाल केलि सम बिधि मति भोरी ||
अयोध्याकाण्ड 282/2
चौपाई का दूसरा पाठ (अन्य प्रतियों से):
भावार्थ बोधिनीकार रामभद्राचार्य जी यह पाठ शुद्ध मानते हैं –

विश्लेषण:
सृजन, पालन और संहार का क्रम सही हो जाता है |
पाठभेद का उदाहरण 2:
दोहा का पहला पाठ:

अधिकाँश टीकाकार इसी पाठ को शुद्ध मानते हैं और गीताप्रेस में भी यही प्रकाशित हुआ है |
दोहा का दूसरा पाठ (वैकल्पिक पांडुलिपि):
लेकिन रामकर्ण शर्मा और भावार्थ बोधिनीकार इससे सहमत नहीं है | रामभद्राचार्य जी का कहना है रामजी की सेना में निशठ और शठ कैसे हो सकते हैं ? अतएव ये लोग कुमुद गव वाला पाठ सही मानते हैं –

विश्लेषण:
हमारे विचार से यह तर्क ठीक नहीं है क्योंकि कृष्ण जी के सहयोगियों में भी निशठ और शठ थे | देखिये महाभारत के जैमिनीयश्वमेध पर्व के दशम अध्याय से प्रमाण –


निशठ का कृष्णजी का सहयोगी होना महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में भी आया है –

ऊपर पांचवे श्लोक में आप निशठ देख पा रहे होंगे |
अतएव हमारे विचार से रामकर्ण शर्मा जी और रामभद्राचार्य जी का पाठ अशुद्ध है | निशठ और शठ वाला पाठ ही शुद्ध है क्योंकि अधिकाँश प्राचीन ग्रंथों में वही पाठ मिलता है |
पाठभेद का उदाहरण 3:
सुंदरकांड के मंगलाचरण के पहले श्लोक में ही मतभेद है !

यह अखिल भारतीय विक्रम परिषद् से संशोधित पाठ है | इसे यहां से डाऊनलोड करें –


यह रामजसन जी का संशोधित पाठ है |
ऊपर आप देख रहे होंगे अधिकाँश विद्वान् गीर्वाण शान्तिप्रदं पाठ को शुद्ध मानते हैं |

गीताप्रेस वाले निर्वाण शान्तिप्रदं पाठ को शुद्ध मानते हैं |
पाठभेद का उदाहरण 4:

यह श्यामसुन्दरदास जी की पोथी से है | श्यामसुन्दरदास जी की पोथी यहां से डाऊनलोड करें –

यह काशीराज की पोथी से है |

अधिकाँश विद्वान् स्वर्ण शैलाभदेहं और रघुपतिवरदूतं पाठ को शुद्ध मानते हैं |

गीताप्रेसवाले हेमशैलाभदेहं और रघुपतिप्रियभक्तं पाठ को शुद्ध मानते हैं |
पाठभेदों के कारण:
हस्तलिखित प्रतियों की त्रुटियाँ:
- पुराने समय में ग्रंथों की नकल करते समय त्रुटियाँ होना स्वाभाविक था।
विभिन्न भाषाई शैलियाँ:
- तुलसीदास जी के समय अवधी और अन्य बोलियों में कुछ शब्दों के प्रयोग में सूक्ष्म भिन्नताएँ थीं।
ग्रंथों की तात्कालिक लोकप्रियता:
- रामचरितमानस की बढ़ती प्रसिद्धि के कारण इसकी अनेक प्रतियाँ बनाई गईं, लेकिन सभी प्रतियों में समानता बनाए रखना संभव नहीं था।
निष्कर्ष:
रामचरितमानस की मूल पांडुलिपि आज हमारे पास नहीं है, लेकिन प्राचीन टीकाएँ और विद्वानों का शोध हमें तुलसीदास जी की मूल रचना के करीब ले जाता है। गुमशुदा छंद और पाठभेद हमें यह सिखाते हैं कि किसी भी महान ग्रंथ को शोधपरक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है ताकि हम प्रामाणिकता के करीब पहुँच सकें।
आमंत्रण:
यदि आपके पास भी रामचरितमानस की किसी प्राचीन प्रति या पांडुलिपि का ज्ञान हो, तो हमें अवश्य बताइए। हम इस महान ग्रंथ की असली भावना को उजागर करने के प्रयास में आपका स्वागत करते हैं।