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अधम जाति मैं बिद्या पाएँ… मंत्री चंद्रशेखर यादव के विवादित बयान का सत्य

विवाद

अभी हाल ही में बिहार के शिक्षा मन्त्री चन्द्रशेखर ने रामचरितमानास की “अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भएउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥” इस चौपाई पर अपने अल्पज्ञ विचारों को प्रस्तुत किया है | इससे समाज में एक व्यर्थ विवाद उत्पन्न हो गया है | आजकल समाज में एक परिपाटी चल पड़ी है बिना विशेष शोध किये एक बिंदु के के आधार पर एक सामान्य सार्वजनिक सिद्धांत की स्थापना कर देने का |
मुझे एक पुराना चुटकुला याद आता है कि एक बच्चा पूछता है अपने पिता से कि वह कितना पढ़े हैं |
जब पिताजी : ” बी. ए। ” कहते हैं तो वह बच्चा खिलखिला के हंस पड़ता है और बोलता है : “दो ही अक्षर पढ़े और वह भी उलटे?”
यहां का प्रसंग भी कुछ ऐसा ही है |

विवाद का सत्य

पहले तो हम इस प्रसंग पर विचार करें | यह प्रसंग रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में दोहा १०५ के पश्चात आता है जब कागभुशुण्डि जी अपने पिछले जन्म में अपने गुरु के साथ वार्तालाप की चर्चा कर रहे हैं:


हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ।।
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ।।

इसका अर्थ गीताप्रेस से प्रकाशित रामचरितमानस में इस प्रकार है :

भावार्थ:-गुरुजी ने शिवजी को हरि का सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षीराज! मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप॥3॥

यहां पर एक सार्वजनिक नियम नहीं कहा गया है कि किसी भी जाति विशेष के व्यक्ति को शिक्षा से दूर रखना चाहिए | यहां कागभुशुण्डि जी अपने लिए एक वक्तव्य दे रहे हैं – वो भी अपने एक पिछले जन्म के विषय में |
भक्ति मार्ग में अहंकार के लिए स्थान नहीं होता | रामचरितमानस के अन्य आदरणीय पात्रों ने ऐसे दीन वचन कहे हैं | उदाहरणार्थ :
तुलसीदासजी अयोध्याकाण्ड में लिखते हैं :

सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥

भावार्थ:-श्री सीतारामजी के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण भरतजी का जन्म यदि न होता, तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, दरिद्रता, दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकाल में तुलसीदास जैसे शठों को हठपूर्वक कौन श्री रामजी के सम्मुख करता?

यहां तुलसीदासजी स्वयं को शठ कह रहे हैं |

सुंदरकांड में हनुमानजी स्वयं को अधम कहते हैं :

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥

भावार्थ:-हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान्जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7||

आप स्वयं विचार कीजिये | हनुमानजी तो विद्यावान गुनी अति चातुर हैं | क्या मानसकार हनुमानजी को अधम कह कर उनकी विद्याहीनता का मज़ाक उड़ाना चाहते हैं ? नहीं ! यहां केवल उनकी निरभिमानता की चर्चा है |

गीता के अठारहवे अध्याय में सात्त्विक कर्त्ता की चर्चा आयी है :

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः |
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते || २६ ||

अर्थात :
जो कर्ता रागरहित, अनहंवादी, धैर्य और उत्साहयुक्त तथा सिद्धि और असिद्धिमें निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है।

यहां अनहंवादी शब्द पर ध्यान दीजिये – जिसके मुख से अहंकार युक्त वचन नहीं निकलते वह सात्त्विक कर्त्ता है |

इन प्रसंगों में अधम शब्द से केवल अहंकारहीनता की सूचना मिलती है |

अब एक दुसरे पहलू पर ध्यान देते हैं जो ज्यादा खतरनाक है | यहां कुछ राजनीतिज्ञ समाज में एक वर्ग को दुसरे वर्ग से झगड़ा करवाने के लिए जाति शब्द पर जोर देते हैं | यहां भी शब्द आया है :
“अधम जाति मैं बिद्या पाएँ।”

इस पर प्रकाश डालने के लिए हम आपको लंकाकाण्ड ले चलते हैं जब अंगद रावण को कहते हैं :

सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़॥33 क॥

भावार्थ:- रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस आँखें होने पर भी तू अंधा है। तेरे जन्म को धिक्कार है॥33 (क)॥

यहां कुजाति शब्द पर ध्यान दीजिये | रावण तो ब्राह्मण कुल का है |

अंगद स्वयं कहते हैं :
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥

भावार्थ:- तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो॥2||

लेकिन उसके सीताहरण के कुल से उसका जीवन कलंकित हो गया | इसलिए अंगद उसके कुजाति कह रहे हैं | कुजाति का अर्थ जिसके दुष्कर्म के कारण उसका जीवन व्यर्थ हो गया हो |

उसी तरह यहां अधम जाति से कागभुशुण्डि जी किसी जाति विशेष की भर्त्सना नहीं कर रहे – बल्कि अपने पूर्व जीवन के दुष्कृत्य पर विनम्र खेद प्रगट कर रहे हैं |

चंद्रशेखर ने ढोल गंवार शूद्र पशु नारी पर भी अपनी अल्पज्ञ टिपण्णी की | यह चौपाई सुंदरकांड में समुद्र ने कही है जो कि जड़ है :
बिनय न मानत जलधि जड़ |
जड़ प्राणी के वचन सिद्धांत नहीं माने जा सकते |

कबीर पर सवाल क्यों नहीं?


भक्तिकाल की समझ रखने वाले विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि जिस आधार पर तुलसीदास को स्त्री विरोधी बताया जा है, उस कसौटी पर कबीर भी घेरे में आ जाएँगे. कबीर के इस दोहे को देखिए-

नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

कबीर कह रहे हैं कि औरत नर्क के कुंड समान है और इससे शायद ही कोई बच सकता है. कोई संत ही इससे उबर सकता है. बाक़ी संबंध जोड़कर मरते हैं.

कबीर के ऐसे कई दोहे हैं, जिनमें महिलाओं को बुराई की तरह पेश किया गया है. मिसाल के तौर पर एक और दोहे को देखिए-

नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥

इस दोहे में कहा गया है कि नारी के प्रति आसक्ति तीन सुखों से वंचित कर देती है. जो भी पुरुष नारी से आसक्ति रखता है, वह भक्ति, मुक्ति और ज्ञान से दूर हो जाता है.

कबीर के एक और दोहे को देखिए. इसमें भी नारी का चित्रण बुराई की तरह किया गया है.

कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।
राग सनेही ऊबरे, बिषई खाये झारि॥

कबीर इस दोहे में कह रहे हैं कि नारी काली नागिन के समान है जो तीनों लोकों में मौजूद है. राम से स्नेह करने वालों को तो मुक्ति मिल जाती है, लेकिन विषय विकार में लिप्त लोग नष्ट हो जाते हैं.

कबीर के ऐसे बीसियों दोहे हैं जिनमें पितृसत्ता की वकालत है और औरतों का चित्रण बुराई के रूप में किया गया है.

लेकिन कबीर पर विवाद करने से चंद्रशेखर जी का राजनैतिक एजेंडा आगे नहीं बढ़ पायेगा, इसलिए उन्होंने तुलसीदासजी पर आक्षेप किया |

उपसंहार

इन सब प्रसंगों पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि इन प्रसंगों में किसी जाति को सार्वजनिक ज्ञान से बहिष्कार का सिद्धांत खोजना खरगोश के सर पर सींघ खोजने के सामान निरर्थक है | चंद्रशेखर जी के वक्तव्य से रामचरितमानस के बारे में तो कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता – हाँ उनकी अल्पज्ञता पर अवश्य प्रकाश पड़ता है |